जु॒षस्व॑ स॒प्रथ॑स्तमं॒ वचो॑ दे॒वप्स॑रस्तमम्। ह॒व्या जुह्वा॑न आ॒सनि॑ ॥
juṣasva saprathastamaṁ vaco devapsarastamam | havyā juhvāna āsani ||
जु॒षस्व॑। स॒प्रथः॑ऽतमम्। वचः॑। दे॒वप्स॑रःऽतमम्। ह॒व्या। जुह्वा॑नः। आ॒सनि॑ ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ७५ पचहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् लोग कैसे हों, इस विषय का उपदेश किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥
हे विद्वन्नासनि हव्या जुह्वानस्त्वं यो विदुषां व्यवहारस्तं सप्रथस्तमं देवप्सरस्तमं वचश्च जुषस्व ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात ईश्वर, अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताबरोबर पूर्वसूक्तार्थाची संगती समजली पाहिजे. ॥