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जु॒षस्व॑ स॒प्रथ॑स्तमं॒ वचो॑ दे॒वप्स॑रस्तमम्। ह॒व्या जुह्वा॑न आ॒सनि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

juṣasva saprathastamaṁ vaco devapsarastamam | havyā juhvāna āsani ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जु॒षस्व॑। स॒प्रथः॑ऽतमम्। वचः॑। दे॒वप्स॑रःऽतमम्। ह॒व्या। जुह्वा॑नः। आ॒सनि॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:75» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ७५ पचहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् लोग कैसे हों, इस विषय का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! (आसनि) अपने मुख में (हव्या) भोजन करने योग्य पदार्थों को (जुह्वानः) खानेवाले आप जो विद्वानों का (सप्रथस्तमम्) अतिविस्तारयुक्त (देवप्सरस्तमम्) विद्वानों को अत्यन्त ग्रहण करने योग्य व्यवहार वा (वचः) वचन है (तम्) उसको (जुषस्व) सेवन करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य युक्तिपूर्वक भोजन, पान और चेष्टाओं से युक्त ब्रह्मचारी हों, वे शरीर और आत्मा के सुख को प्राप्त होते हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वन्नासनि हव्या जुह्वानस्त्वं यो विदुषां व्यवहारस्तं सप्रथस्तमं देवप्सरस्तमं वचश्च जुषस्व ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जुषस्व) (सप्रथस्तमम्) अतिशयेन विस्तारयुक्तव्यवहारम् (वचः) वचनम् (देवप्सरस्तमम्) देवैर्विद्वद्भिरतिशयेन ग्राह्यम् तम् (हव्या) अत्तुमर्हाणि (जुह्वानः) भुञ्जानः (आसनि) व्याप्त्याख्ये मुखे। अत्र पद्दन्नोमास०। (अष्टा०६.१.६३) इति सूत्रेणासन्नादेशः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या युक्ताहारैर्ब्रह्मचारिणः स्युस्ते शरीरात्मसुखमाप्नुवन्तीति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात ईश्वर, अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताबरोबर पूर्वसूक्तार्थाची संगती समजली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - जी माणसे युक्तिपूर्वक आहारविहार, प्रयत्नपूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करतात ती शरीर व आत्म्याचे सुख प्राप्त करतात. ॥ १ ॥